Friday 28 April 2023

हां...ये भी अच्छा होता है।

हां...ये भी अच्छा होता है।


बचपन गुजर जाने के बाद भी,

मन के अंदर इक कोने में,

उस बचपन को जिंदा रखना अच्छा होता है।


अपनी गलती न होने पर भी,

कभी कभी अपनों के लिए,

चुप रह जाना भी अच्छा होता है।


व्हाट्सएप या फेसबुक पर पोस्ट किए बिना,

कभी किसी की मदद करना,

किसी को सहारा देना भी अच्छा होता है।


कभी कभी यूं ही बिना किसी वजह के,

अपने किसी पुराने दोस्त से,

बात कर लेना अच्छा होता है।


चंद लम्हों के लिए,

अपना स्टैंडर्ड, रुतबा भूलकर,

वो पुरानी जिंदगी जी लेना भी अच्छा होता है।


गर फुरसत मिल जाए,

जो बाहर की दुनिया से,

तो कभी अपने घर में,

अपनों के साथ बैठकर भी,

थोड़ी गुफ्तगू कर लेना अच्छा होता है।


हां...जिंदा रहते हुए ही,

जिंदगी को जी लेना अच्छा होता है। 

Monday 24 April 2023

पढ़ा लिखा समाज

शायद हम ऐसे ही,

पढ़े लिखे समाज से आते हैं।


जहां पर लोग घर मे,

बच्चों को “आप” कहकर बुलाते हैं,

मगर बाहर सड़क पर,

दुगुनी उम्र के लोगों को भी “तू” कहकर चिल्लाते हैं।


इसी पढ़े लिखे समाज में समाज के ठेकेदार,

“बाल मजदूरी” को सामाजिक अपराध बताते हैं,

बाहर जाकर, फिर वही लोग चाय की दुकान पर,

"छोटू दो चाय लाना" आवाज लगाते हैं।


यहां दुनिया के सामने खड़े होकर जो लोग,

नारी सम्मान की बातें करते हैं,

वहीं लोग अपने घर और समाज में,

नारी की मर्यादा को तार तार करते हैं।


खुद के परिवार की सुरक्षा के लिए,

अपना एक्सीडेंटल इंश्योरेंस करवाते हैं,

लेकिन सड़क पर यदि एक्सीडेंट हो जाए,

तो एंबुलेंस बुलाने से पहले मोबाइल से वीडियो बनाते हैं।


यहां पर जिन लोगों में,

अपना वर्चस्व दिखाने की होड़ मची है,

असल में भ्रष्टाचार की मेहंदी भी,

उन्हीं के हाथों में ज्यादा रची है।


अपनों को निसहाय छोड़कर,

दूसरों की मदद के लिए दौड़े जाते हैं,

झूठा दिखावा करने की इस दौड़ में,

हम पढ़े लिखे लोग, मानवता भी भूल जाते हैं।


सच में,

हम ऐसे ही,

पढ़े लिखे समाज से आते हैं। 

Friday 21 April 2023

मेरा कमरा

एक कमरा था कोने में

न दीवार चिनाई सोने में

न रंग हुआ हर दीवाली पे 

न खिड़की प न जाली पे।


हर अलसाई उनींदी रातो में

हर किस्से और मुलाकातों में

वो वही खड़ा था विरल अटल

कुछ मासूम चल आये पैदल।


खुली कभी किताबें, कभी सुरा

न माना कभी किसी बात बुरा

पन्ने पलटे और छलके जाम

मेरे चार यार है नहीं आम।


यूँ बीत गए वर्ष मास दिवस

इम्तिहान हुए न टस से मस

हम जीत गए हम हार गए

सब अपने अपने द्वार गए।


अब यार बन गए सरकारी

नहीं हुई मुलाकाते भारी

सूना कमरा प्रभात निशा

कोई आये इस शहर दिशा।


मैं आस लगाता हूँ अवकाश

फिर से आये वो समय काश

महफ़िल का रास्ता मेरा घर

फिर से गूंजे सबका स्वर।


ये मन का कपड़ा अभागा है

मैं सूई हूँ तू धागा है

क्या मोल लगेगा पिरोने में

एक कमरा था कोने में।

Wednesday 19 April 2023

जीवन की डगर

कभी छांव का सुकून तो कभी धूप की तपन,

कुछ ऐसी ही तो होती है जीवन की डगर।


पहले बचपन फिर जवानी,

हर दिन बदली हुई कहानी।


मगर कहानियों के जैसा,

सुखद अंत यहां हर बार नहीं होता।

शतरंज की बिसातों सा है जीवन,

कौनसा प्यादा वजीर को मारेगा, पता नहीं होता।।


मुसीबतें जीवन में,

परीक्षा की तरह होती हैं।

जिनको पार करके ही,

आगे की राह प्रशस्त होती है।।


माना कि जीवन में,

संघर्ष खत्म नहीं होते।

लेकिन एक साथ,

सारे रास्ते कभी बंद नहीं होते।।


हर रात के बाद,

जैसे सवेरा होता है।

जीवन में भी उसी तरह,

सुख दुख का बसेरा होता है।।


गिरना, उठना और फिर से चलना,

मगर उम्मीदों का दामन कभी ना छोड़ना।।


जब आगे बढ़ते रहना,

एक आदत सी हो जाती है।

सुना है तब हौसलों के आगे,

लहरें भी हार जाती हैं।।


संभव है यह कि

जीत पाओ हर बार नहीं।

किंतु जीवन रण में,

हारा वहीं जो लड़ा नहीं।।

Thursday 13 April 2023

यादें

 यूं तो बदल चुका है सब कुछ,

मगर वो बाकी है मेरे अंदर आज भी कहीं,

भुला देना चाहता हूं उसे,

महफूज है मगर आज भी दिल के इक कोने में,

भाग रहा हूं वक्त की दौड़ में,

वक्त थम सा जाता है मगर आज भी उसके आने से,

सीख गया हूं खुद को खुद से छिपाना,

ईमानदार बन जाता हूं मगर आज भी उसके सामने,

भूल गया हूं मुस्कराना,

लब मुस्करा जाते हैं मगर आज भी उसके होने से,

हां......यादें,

वो मीठी सी यादें ही तो है

बहते पानी सी जिंदगी में पीछे छूट जाती हैं जो, 

चली आती हैं फिर वक्त-बेवक्त कभी भी,

और फिर जिनके आने से चल पड़ता हूं मैं,

अपने ही अंदर छिपे हुए खुद को ढूंढने के लिए,

यूं तो बदल चुका है सब कुछ,

मगर वो बाकी है मेरे अंदर आज भी कहीं।।

सब अपनी जगह पर है...

वो बचपन, 

मां का आंचल, 

स्कूल के बीते लम्हें,

सब अपनी जगह पर है।

बस जीने वाला कोई और है।।


वो बचपन के यार

दादी नानी का प्यार

हँसी खुशियों वाले त्यौहार

सब अपनी जगह पर हैं ।

बस प्रफुल्लित होने वाला कोई और है ।।


वो बेफिक्र शरारतें,

आधे दिन की छुट्टी की खुशी,

इम्तिहान खत्म होने का इंतजार,

सब अपनी जगह पर है।

बस खुश होने वाला कोई और है।।


वो बिना मोबाइल वाली दुनिया,

ना किसी को पाने की फिक्र,

ना किसी को खोने का डर,

सब अपनी जगह पर हैं।

बस महसूस करने वाला कोई और है।।


वो फिक्र अपने परिवार की,

हिम्मत हर मुसीबत का सामना करने की,

बदला कुछ भी नहीं है,

सब अपनी जगह पर हैं।

बस सामना करने वाला कोई और है।।

आखिरी मुलाकात का वादा

आखिरी मुलाकात में वादा था उनका,

जब भी मिलेंगे, मुस्करा कर मिलेंगे।


दिल में भले ही गिले शिकवे होंगे, 

आंखों में भले ही इंतजार होगा,

पर जुबान से ना कोई बात होगी,

चेहरे पर बनावटी मुस्कान होगी।


मुस्कान के उस पार दबे हुए जज्बात भी होंगे,

जज्बातों के कश्मकश में फंसे हुए सवाल भी होंगे,

मगर दिल के इस भंवर को दिल में ही रखेंगे,

मिलकर भी कुछ अनजान से बने रहेंगे।


अनकहे अनसुने से किस्से तो बहुत होंगे,

अधूरे सपने, पीछे छूटे अपने भी होंगे,

पर 'मिले है शायद हम पहले' कहकर, बातें शुरू न होंगी,

चोरी छिपे नजरों की मुलाकातें न होंगी।


अश्क भरी आंखों से जब बोली उन्होने ये बात,

तब हमने जाना, शायद यहीं तक था हमारा साथ,

गुजरे जमाने, प्यार के अफसाने, याद तो बहुत आयेंगे,

लेकिन जानते है हम एक दूसरे को, ये कभी ना बताएंगे।


माना कि हर रिश्ते का अंत मिलन नहीं होता,

लेकिन दिलों के मिलने से बड़ा कुछ नहीं होता,

कान्हा को तो मालूम था, राधा उनकी न होगी,

प्रेम की पौध के साथ विरह की ताप भी होगी।


फिर भी माधव को उस गवालिन के प्रेम ने अपना बना लिया,

इक बिना नाम के रिश्ते ने त्रिलोक-नाथ को हरा दिया,

सच्चा प्रेम किसी रिश्ते, किसी नाम का मोहताज नहीं होता,

वरना यूं ही लोगों को राधा कृष्ण का नाम याद नहीं होता।

बेटियां

   बारिश की बूंदों सी, फूलों की खुशबू सी,

अंधेरे में रोशनी सी, गम में खुशियों सी,

हां साहब, बेटियां कुछ ऐसी ही होती हैं।


वो किस्मत वालों को ही मिल पाती हैं,

आने से जिनके घर की बगिया खिल जाती है,

यूं तो कभी किसी से कुछ भी नहीं मांगती हैं,

मगर बिन मांगे ही बहुत कुछ दे जाती हैं।


वो पिता का स्वाभिमान, 

मां की विरासत होती हैं,

नाम रोशन करती हैं उम्र भर,

अपने घर का ऐसा चिराग होती हैं।


वो अपनी खुशियां सबके साथ बांटती है,

अपने घर को ही पूरी दुनिया मानती हैं,

उनके होने से हर दिन एक त्यौहार है,

घर में उनका होना ही एक वरदान है।


वो कभी द्रौपदी मुर्मू, तो कभी हरमनप्रीत कौर है,

गौर से सुनो, हर तरफ आज उसी के नाम का शोर है,

सबके साथ कंधे से कंधा मिलाती है,

अपने घर का, अपने देश का मान बढ़ाती है।


कभी बहन तो कभी मां बन जाती हैं

एक ही बार में ना जाने कितने किरदार निभाती हैं,

यूं तो सबकी तकदीर पहले से ही लिख जाती है,

मगर ये बेटियां हैं साहब, जिनके आने से किस्मत भी बदल जाती है।


जाओ बेटियों, 

आगे बढ़ो,

कुछ बड़ा नहीं तुम्हारे लिए,

कुछ अप्राप्य नहीं तुम्हारे लिए।


बारिश की बूंदों सी, फूलों की खुशबू सी,

अंधेरे में रोशनी सी, गम में खुशियों सी,

हां साहब, बेटियां कुछ ऐसी ही होती हैं।

हो सके तो..

   हो सके तो ढूंढ लो,

सुकून का वो दरवाजा,

खुलता हो जो उस पुरानी दुनिया में,

जी सको जहां फिर से बचपन तुम अपना।


हो सके तो ढूंढ लो,

खुशियों की वो खिड़की,

झांक सको जहां से वक्त के उस पार,

देख सको जहां तुम खिलखिलाते हुए अपने आप को।


हो सके तो ढूंढ लो,

जज्बातों का वो समंदर,

चल सको जिसके किनारे कुछ कदम नंगे पैर,

सहेज सको जहां कुछ पुराने रिश्ते फिर से।


हो सके तो ढूंढ लो,

अपनेपन की वो गीली मिट्टी,

बो सको जिसमें हरे भरे परिवार की पौध,

सींच सको जिसे प्यार और अपनेपन से।


हो सके तो ढूंढ लो,

यादों के वो झरोखे,

आवाज दे सको जहां से अपने उन दोस्तों को,

छोड़ आए जिनको आगे बढ़ने की दौड़ में।


हो सके तो वक्त निकाल लो,

अपने आज के लिए,

ताकि कल अफसोस न हो,

अपने कल के लिए।।

बचपन

 बचपन कितना अच्छा था।I


वो बचपन की नादानियां,

बेहिसाब शैतानियां,

ना जरूरतों का ध्यान,

ना दिल में बड़े अरमान,

दिमाग थोड़ा कच्चा था

बचपन कितना अच्छा था।


वो पापा की डांट,

और फिर मां का लाड़, 

ना आने वाले कल की फिक्र,

ना गुजरे वक्त का जिक्र,

बस दिल हमारा सच्चा था

बचपन कितना अच्छा था।


वो स्कूल का जमाना,

दोस्तों के साथ खिलखिलाना,

रात के खुले आसमान में तारों में तस्वीर बनाना,

फिर तारे गिनते हुए मासूम सपनो में खो जाना,

नादान सा इक बच्चा था,

बचपन कितना अच्छा था।


और फिर.. 

वो मौज मस्ती का दौर खत्म हो गया,

हमारा नादान बचपन जवान हो गया,

स्कूल बैग वाले कंधे अब जिम्मेदारियों का बोझ उठाने लगे,

वो बेवजह खुश रहने वाले अब खुशियां कमाने लगे,

सच में, 

जीवन का वो निश्छल दौर कितना सच्चा था,

बचपन कितना अच्छा था।।

जिंदगी का सफर

कब से जतन किए, लेकिन  बन तो नहीं पाया था।

उम्मीदों के पंखों से, अब तक उड़ तो नहीं पाया था।।

बात सिर्फ इंसान बनने की थी तो ठीक थी, पर काबिल तो नहीं बन पाया था।
इन बहते झरनों की तरह, निश्छल तो नहीं बन पाया था।।

भाग रहा था जिंदगी की इस दौड़ में, लेकिन अब तक जीत तो नहीं पाया था।
जीतने की चाह क्यूं थी, ये अभी तक जान तो नहीं पाया था।।

दौड़ा, गिरा, उठा फिर दौड़ा लेकिन मंजिल को अब तक देख तो नहीं पाया था।
रंगमंच की कठपुतली है हम सब यहां, ये सच अब तक जान तो नहीं पाया था।।

पर अब एक धुंधला सा उजियारा दिखा है, दूर क्षितिज में।
जिंदगी के सफ़र में जाना किस डगर है, अब ये देख पाया हूं।।
जीत जाऊंगा ये दौड़ जिंदगी की, मन में ये ठान पाया हूं।
आशाओं की नई फूटती कोंपलों से बनता जिंदगी का वटवृक्ष देख पाया हूं ।।

ये बनावटी मुस्कान...!

चेहरे पर ये जो, बनावटी मुस्कान ला रहे हो। मेरे दर्द पर मुस्कराने का, हुनर अभी जिंदा है या, अपना कोई दर्द छिपा रहे हो।। बिखरा तो मैं भी था, म...